वो एक दिन का सकरात ✍️
ना पतंग है ना डोर है ना लाई-तिलवे का शोर है ये साँझ है या भोर है वो उत्साह अब किस ओर है क्या ठंड ही बेजोड़ है या फिर मन में ना अब जोर है हर तरफ पसरी शांति है ये कैसी मकरसंक्रांति है हृदय में बसी एक भ्रांति है कहाँ वो बचपना कांति है चूड़ा पड़ा है झोले में सब बैठे कंबल खोले में पैकेट से बाहर झांक रहा है तिलकुट नहा धो के आ जाओ घर के घाट चित्रकुट दही जमी है हांडी में खाने की ना गारंटी है सब्जी काट रही है माँ पर नहाओगे कब ना डांट रही है माँ बच्चे थे तो सुबह सुबह बिना पूछे कर दिया जाता था पानी के हवाले मजाल है जो बिना डुबकी लगाये कुछ भी खा ले खिचड़ी की खुशबू जब आती थी रसोड़े से चूहे दौड़ने लगते थे सूरज के सातवें घोड़े से पापड़ घी कुरकरी चटनी चोखा अचार देख कर एक साथ कैसा हो विचार यूँ तो है ये बस एक दिन का त्यौहार पर इसके नाम में ही रात है दिन जैसा दिख रहा सब कह रहे सकरात है अगर ये पढ़ कर आपके मुँह में पानी है तो समझ जाओ की जिंदगी में अभी बाकी कहीं ना कहीं वो हसीं बचपन की कहानी है @shabdon_ke_ashish ✍️