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Showing posts from December, 2023

उम्मीद की धूप 🌝

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साल का आख़िरी दिन है आधे पहर निकल जाने के बाद मैंने अपने कमरे की पूरब वाली खिड़की से पर्दा और शीशा दोनों अपनी बांई तरफ खिसकाया और देखा कि रात से दिन तक चट्टान सी जमी सर्दी हल्के पीले धूप का रंग लिए मुस्कुरा रही है । चारों तरफ एक खामोशी सी पसरी है मगर दबा दबा सा ही सही कुछ ही घण्टे में कैलेंडर के बदल जाने का शोर वातावरण में भटक रहा है । उजड़ते-बसते , हारते-जीतते , रूठते-मानते , गिरते-संभलते चाहे जैसे भी एक वर्ष और पूरा करने के कगार पर खड़ी है जिन्दगी । मानों कह रही हो अभी और भी बहुत कुछ देखना बाकी है । वैसे इस जाते हुए वर्ष में हमने कुछ ऐसा कारनामा तो किया नहीं जिसकी वजह से खुद को शाबासी दे और यूँ ही बेवजह पीठ थपथपाने की हमें आदत भी नहीं । फिर भी बढ़ती उम्र के खाते में एक साल और तो जमा हो ही गए । उम्मीद तो बहुत थी जो बीतते दिनों के साथ धूमिल होती गई । मगर सब खत्म होकर भी कुछ तो बाकी है और यही तो है जिन्दगी ।  ज़माने की अंधाधुंध धुंध के बीच उम्मीद की धूप सच कहूँ तो जीवन का प्रतिरूप । @shabdon_ke_ashish ✍️

क्या मुरझाये हुए फूलों को भी खिलखिलाने का हक है ?

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सवाल बहुत ही संगीन है कि क्या वाकई में इस रंगीन दुनिया में रंगहीन को भी मुस्कुराने दिया जायेगा । सादे से लोग सादगी को समझ भी जाये तो क्या उन्हें ये सहर्ष सादगी से निभाने दिया जायेगा ? इंसानियत की परख और आदमियत की पहचान अक्सर तभी होती है जब हम टूटकर बिखर रहे होते है और फुटकर रोने के लिए एक विश्वासी कांधे की तलाश होती है ,जिस ओर ये सर स्वयं ही झुक जाये और गले से गले का आभासी स्पर्श भी हलक में अटकी अरसों के करुण विलाप को नयनों की निर्मल गंगा के साथ अनवरत बाहर आने दे तब तक जब तक की हृदय के अंदर दबा सारा का सारा गाद बाहर ना आ जाये । आख़िर वर्षों से बह रही जिन्दगी की नदी को डेल्टा बनाने के लिए एक साथी जो चाहिए ; ये वही है जिसने बड़ी खामोशी से पहाड़ों से उतरती तीव्र और तीक्ष्ण धारा के मंद हो जाने की राह तकी है । एक वही है जो सब जानता है ,आगाज़ से लेकर मुहाने तक का सफर उसने मेरे शब्दों के साथ-साथ मेरी आँखों में भी देखा है । मुझे संघर्ष करते हुए , वक़्त और हालात से टकराते हुए , गिरते हुए , संभलते हुए , पथ बदलते हुए , नाचते हुए , झूमते हुए , खुशी के गीत गाते हुए , दूर से पास बेहद पास आते हुए , मुझे त

बिहार से हूँ या भारतीय हूँ !

सर्दी की गुनगुनी धूप में हाथों में झारखंड लिए बैठा हूँ मगर दिलोदिमाग में बिहार है ,यकीन करिए बिहार से हूँ ! यूँ तो राष्ट्रीयता भारतीय है मगर राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में हम सब प्रतिभागियों का समाज कई वर्गों में खंडित है , फिर भी हम सब है तो एक वो विविधता में एकता वाली बात तो आपसब ने सुनी ही होगी ठीक वैसे ही और क्या ! पढ़ने की आदत से लाचार हम या फिर अपने ही प्रदेश में आरक्षण के नए फ़रमान से आहत अपने पड़ोसियों के घर सम्भावनाएं तलाशने को विवश है या यूँ समझिये समाज में अपनी प्रतिष्ठा और पहचान बचाये रखने का एक प्रयास है । वैसे तो इस देश में आरक्षण का विरोध करना अंग्रेजी राज के किसी गवर्नर को गोली मारने से कम नहीं फिर भी इसके आधारों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हमारे अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार क्षेत्र में तो आता ही है । पर सत्तारूढ़ शिरोमणियों को अपनी-अपनी राजनीतिक साख बचाने के लिए आरक्षण की पुड़िया रामबाण के समान प्रतीत होती है ,जिसे श्मशान में पड़े मुर्दे की जीभ पर डाल दे तो तिलमिला कर हे राम का उदघोष करते हुए दौड़ पड़े । बिहार एक ऐसा प्रदेश है जहाँ हम निम्नमध्यवर्गीय परिवारों के लिए सरकारी नौकरी कल

वैरागी हूँ पर मंजिल वैराग नहीं !

सच ही तो है समय और परिस्थितयाँ मनुष्य से सबकुछ मनवा लेती है भले आप मन से इसे स्वीकार ना करें पर समझौता ही सही यही है जिन्दगी । तभी तो हम वहाँ पहुँच जाते है जो हमारे दिलोदिमाग के दरमियाँ कभी था ही नहीं और फिर शुरू होती है आदमी की आदमियत से जंग दरअसल आत्मा की आत्मसम्मान से लड़ाई । एक तरफ हमारी चाहत ,हमारी ख्वाहिशें होती है और एक तरफ सकल समाज यानी ये दुनिया और इसी विरोधाभास की सड़क के बीचोबीच मुसाफ़िर की तरह सफर करते है हम । यकीन मानिए बड़े खुशनशिब है वो चंद लोग जो अपनी चाहत की तरफ बढ़ रहे है थोड़ा और थोड़ा और थोड़ा और , वरना जो दुनिया की तरफ से है वो तो भीड़ में भी आजीवन अकेला ही रह जाता है .... और जिंदा रहती है तो बस एक कसक कि पहले क्यों ना मिले हम ? @shabdon_ke_ashish ✍️

चार आने का सुख !

मैं अकेला नहीं हूँ मेरी ही तरह शायद सबका ही कभी ना कभी तो ये भरम जरूर टूटा होगा कि साख जैसी कोई चीज नहीं होती । सदियों तक शासन करने वाले बड़े-बड़े साम्राज्य और युगों तक उत्कर्ष करने वाली सभ्यताओं की तरह साख का भी पतन होता है । हम जिस संस्था से जब तक जुड़े रहते है या फिर हमारे जुड़े रहने की संभावनाएं साँस लेते रहती है , तब तक हम वहाँ जिंदा रहते है और जैसे-जैसे वक़्त बीतता है ये दूरी लोगों के मन और मस्तिष्क में हमारी स्पष्ट और स्थायी छवि को धूमिल करते जाती है । और एक दिन ऐसा भी आता है जब बाहरी दुनिया में जीवंत होने के बावजूद हम उस चारदीवारी के अंदर दम तोड़ चुके होते है पर सबसे बड़ी बात ये है कि अब वहाँ जान कर भी कोई जानने वाला नहीं होता । दरअसल जिस परिश्रम से पाई विरासत को हम अपनी साख समझ बैठे होते है वो बचपन में हथेली पर पड़े किसी चार आने के सुख की तरह है जिससे हम कभी दुनिया खरीदना चाहते थे ..... @shabdon_ke_ashish ✍️

जीवन का संघर्ष ✍️

एक लेखक दुनिया के रंगमंच पर ही मगर ज़माने से अलग-थलग किसी कोने में जीवन का संघर्ष लिखने बैठा है । तभी जिन्दगी आती है एक जोरदार ठहाका लगाती है । लेखक : अरे ओ बावली जिन्दगी ये कैसा अठ्ठाहस है ? जिन्दगी : वही तो मैं भी तुझसे पूछ रही ये कैसा दुस्साहस है । लेखक : चेहरे पर सब समझ कर भी ना समझ पाने का अभिनय करता हुआ , जी मैं कुछ समझा नहीं । जिन्दगी : सच तो ये है कि अभी तुमने संघर्ष देखा ही कहाँ है और ना ही जिन्दगी । मंच पर थोड़ी देर सन्नाटा छा जाता है फिर दुनिया सकल समाज के रूप में अपनी रफ़्तार पे सँवार हो जाती है ........ और लेखक अब किसी और का संघर्ष तलाशने निकल पड़ता है । @shabdon_ke_ashish ✍️

हम बच्चों का नानी-घर 🏡

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बात सोलह आने सच है बड़े चाहे जितनी भी बड़ी-बड़ी बातें कर ले मगर माहौल तो हम बच्चें ही बनाते है एकदम से धूम मचा ले वाले जॉन अब्राहम की कसम । ये कहानी किसी रियासत की नहीं एक घर की है जो शहर के गली-मोहल्लों से ऊब कर मानो अपनी वर्षों की जमा थकान मिटाने आहिस्ता-आहिस्ता सरकते हुए गाँव में आ बसा है ; ये अब किराये का नहीं रहा इसने यहाँ स्थाई बेड़ा डाल लिया है । लोग वही है पर वातावरण बिल्कुल बदल गया है अब यहाँ दहलीज़ पर बिखरी आड़ी-तिरछी चप्पलें नहीं गिनी जाती ना ही कोई खिलखिलाते दाँतों का हिसाब लेता है गिने जाते है तो बस लम्हें जो थोड़ा और होने चाहिये थे शायद ऐसा ही हर बार तो लगता है । पानी की टँकी भर गई है अब मोटर सीधा रात को चलेगा ये सुने तो ज़माना हो गया । कब आना है कब जाना है मेरी मर्जी .... 😁😂🤣         हम भाई बहनों में विविधता भी तो इतनी है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत भी अपने हाथ खड़े कर दे । खैर जाने दीजिये गुण-दोष गिनाने का सही वक़्त नहीं ; पता नहीं किस बात पे कौन कोई नया बवाल खड़ा कर दे । चार बहनों के नौ-नौ ठिया बच्चें और सब एक से बढ़कर एक । सोनू , शिबू ,शालू ,प्रिया ,टप्पू ,खुशी ,छोटी ,भोल

बेरोजगार बकरी पंचायत 🐐

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सरला आ गया है ,मिंटू के दरवाजे पर हाजिरी लगाये बिना पानी भी नहीं पचता उसको । आजकल धीरन भैया दूर रहने लगे है इस कुचरे वार्तालाप से ,उन्होंने मिंटू के बातों से नकारात्मकता की बदबू आने का हवाला देकर पल्ला झाड़ लिया है । रोजाना की तरह मैं सुबह उठकर current अफेयर्स की किताब हाथ में थामे खिड़की खोल देता हूँ ताकि सर्दी की गुलाबी धूप कमरे के माहौल को थोड़ा गर्म कर सके । मगर धूप से ज्यादा तो सरला की बकबक और नये नये ज्ञानी बने बाबा मिंटू का प्रवचन गूँज रहा है । ये वही खिड़की है जिस पर कल मैंने गर्म चाय की प्याली रखते हुए एक पिता-पुत्र का गरमागरम संवाद देखा था । यूँ तो मुझे किसी और के लफड़े में पड़ने की आदत बचपन से नहीं पर आँखे शायद बेवजह चश्मदीद हो गई । बूढ़े बुटन लाल जो कि रिश्ते में मेरे पापा के बड़े भाई है उन्हें उन्हीं के ज्येष्ठ पुत्र मनोज भैया ने शब्दों के बाण से छलनी कर दिया । एक पुत्र का पिता के प्रति इतना आक्रोश अतीत की बेरोजगारी और ताजा ताजा रईस बनने का गुरुर लिए चारों तरफ एक मतवाले हाथी की तरह चीत्कार रही थी । बस चंद मिनटों की गहमा गहमी में ही इतिहास के सारे पन्ने बिखेर दिए गए । चाहे जो भी हो

मगर कब तक ?

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चम्मच से चिपके च्यवनप्राश को चाटता हुआ मैं गुलाबी सर्दी की चमचमाती सुबह को निहार रहा था कि तभी माँ ने आवाज लगाई और चाय की प्याली मॉर्निंग वॉक करती हुई मेरे सामने स्टडी टेबल पर आ गई । वैसे तो आजकल मैं कुछ खास पढ़ता-लिखता नहीं पर चाय की चुस्कियां लेते हुए योजनाएं ढ़ेर सारी बना लेता हूँ । सामने परीक्षाओं की एक श्रृंखला तो बाहें पसारे जरूर कतार में खड़ी है पर इच्छाओं ने जैसे हथियार डाल रखें है । ऐसा नहीं है कि जीवन में कुछ कर गुजरने की कामना ना रही पर असफलताओं से बारंबार बेहद करीबी सामना जो हुआ उसने ज़रा सा और आलसी बना दिया है । हररोज निहारता हूँ कभी सजी तो कभी बिखरी किताबों को पर एक नई शुरुआत कहाँ से की जाए प्रकृति की ओर से कोई संकेत नहीं मिल पा रहा है।   इसी उधेड़बुन में सुबहो शाम उलझा मैं कभी अपनी नौकरी पेशे वाली व्यस्त दिनचर्या को तो कभी लॉक डाउन के उस असीमित ख़ालीपन को याद करते रहता हूँ । दो धाराओं में बंटी मेरी जिन्दगी का एकीकरण भी तो आख़िर उसी काल में हुआ था जब समूचा विश्व बंद था चारदीवारी में तब मेरे मन के परिन्दे ने रफ्ता-रफ़्ता खुले आसमान में एक चहकती चिड़िया के साथ अपने भीतर दबी सारी बात