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Showing posts from June, 2022

दो कंकड़ और दो पत्थर

बंजर रास्ते पर तन्हा पड़े थे दो कंकड़  उम्र से नहीं जिन्दगी से थक कर  रात से अकेले थे आठों पहर  नहीं थी कुछ खबर ना कोई फिकर ना सब की खुशी ना उमंगों का सहर पसरे पड़े थे वीराने के भीतर  ठोकर लग जाने का भी तो नहीं था डर  दूर था शहर अनजान थी डगर मगर ! दोनों अजनबी जो मिले थे ना कभी  सागर गटके हुए नजरों के अंदर फिर भी दरारों से सजे थे सूखे बेजान अधर बयां कर रहे थे समाज का कहर अपनों ने ही दिए थे ईनाम में जहर हुआ यूँ कि एक दफा  हालात से हो कुछ खफा उनमें से एक ने  शाम होते देख के लिख दिया कुछ रेत पे जज्बात थे  हालात थे तभी दूसरे की भटकती नजर एक पल को गई ठहर  लिखा था जो वो लिया पढ़ तब से वो बस यही हर बार ही करने लगी  लिखता रहा वो बेखबर और दो नजर पढ़ने लगी  वैसे तो भीड़ बहोत थी जमाने में पर बस शब्दों का ही शोर था इस वीराने में  थोड़ा वक्त जरूर लगा हौसला जुटाने में  पर एक सुबह वजह बनी पास आने में फासला जरूर था मिलों का पर ये सफर था बस एक राज्य के दो जिलों का शब्द ही पहचान बने  जो कभी ना अनजान लगे  पहले क्षण से ही जो अनन्त है इस प्रेम का ना अंत है  आवाज तक ना आई कभी बस शब्द ही तो मिले अभी  रफ्ता रफ

समाज का चरित्र-चित्रण

लघु लेख शीर्षक : समाज का चरित्र-चित्रण यूँ तो ये तथाकथित समाज हर एक चरित्र का चित्रण करता है पर एक बात बड़ी विचित्र है क्या इस समाज का अपना कोई चरित्र है ? नहीं ! क्योंकि इस समाज का चरित्र-चित्रण कोई कैसे कर सकता है ,आखिर सब इससे डरते जो है । हमसब ने ना जाने कितनी बार ये सुना होगा समाज क्या कहेगा ? अगर समाज बोल सकता है ,अगर इसकी जुबान है तो इसका चरित्र भी अवश्य होगा । परन्तु कैसा ? यह संशय का विषय है कभी यह निराकार है तो कभी इसके विभिन्न प्रकार है । एक प्रश्न तो यह भी है कि - समाज है भी या नहीं ! शायद समाज तभी तक है ,जब तक हमारे अंदर डर है ,लाज है ,लिहाज है । समाज स्वार्थी लोगों की एक काल्पनिक संस्था है जिससे वो तभी तक जुड़े रह सकते है जब तक उन पर कोई उँगली ना खड़ी हो । अगर बात अपने पर आती है तो एक ही बात बच जाती है मुझे समाज से क्या लेना ,मैं तो इस समाज का हूँ ही नहीं । अ जी कौन समाज ?कैसा समाज ?किसका समाज ? एक छोटा सा उदाहरण है कल तक प्रेम विवाह से परहेज था , फिर प्रेम सजातीय हो तो रफ्ता-रफ्ता मान्यता मिलने लगी । फिर भी अंतरजातीय तो पाप था पाप ,लेकिन अब तर्क है कि प्रेम में कहाँ कोई जा

तुम बिन ......

कैसे ये शाम ढली तुम बिन कैसे ये साँस चली तुम बिन कैसे हर आह जली तुम बिन कैसे ये जान बची तुम बिन धड़कन को यकीं है कि उधर भी है ये बेचैनी धड़कन को यकीं है कि उधर भी है ये बेचैनी तभी तो ना रुकी तुम बिन ये पलकें ना झुकी तुम बिन तभी तो ना रुकी तुम बिन ये पलकें ना झुकी तुम बिन मेरा हर एक सवेरा तुम मेरी हर शाम तुमसे है मेरा हर काम तुमसे है मेरा तो नाम तुमसे है बदलता है ये दिन मुश्किल से तारीख के भरोसे पर बदलता है ये दिन मुश्किल से तारीख के भरोसे पर मेरी तो रात तुमसे है मेरी हर बात तुमसे है मेरी तो रात तुमसे है मेरी हर बात तुमसे है मोहब्बत ,इश्क और प्यार के नगमें कई होंगे किसी की आँख में सिमटे हुए सपने कई होंगें जो गैरों को भी अपना कह दे ऐसे अपने कई होंगें कंपकंपाती हुई लबों पे लफ्ज अटके कई होंगें मगर साँसों की माला में सिमरे जो हर एक लम्हा मगर साँसों की माला में सिमरे जो हर एक लम्हा ऐसे तो बस हम-तुम है जो एक-दूजे में ही गुम है  ऐसे तो बस हम-तुम है जो एक-दूजे में ही गुम है  ❤️SwAsh💖

ये महज रिवाज है ,विवाह नहीं !

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पद और हैसियत देखकर अपनी औकाद के हिसाब से एक सौदा होता है ,जिस रिश्ते को हमारे समाज में विवाह कहते है । फिर इस रिश्ते से उम्मीद भी रखते है । लानत है ,ऐसे रिवाज पर ;जी हाँ लानत है ऐसे समाज पर । देखा है मैंने हमें कुछ नहीं चाहिए कहने वालों को भी सबकुछ चाहिए होता है । अजीब विडंबना है ना लड़के का भाव लगाया जाता है और बेटी का बाँप अपनी अनमोल सम्पति जिसके लालन-पालन में कोई कसर नहीं छोड़ी कभी ,उस अद्वितीय धरोहर को मुस्कुराते हुए सौंप देता है किसी और की चारदीवारी में चौखट के उस ओर मजबूर बुलबुल की तरह और फिर भी अदब से झुक कर पूछता है :- और क्या लेंगे आप ?कोई कमी तो नहीं । सब ठीक है ना । अपने बेटे की शादी को अवसर समझ कर अपना घर भरने वाले भूखे भेड़िये पूरा कोना निहार कर एक लंबी डकार मार कर कहते है मुझे क्या देंगें आप सब आपकी बेटी और दामाद का है । और यही होता आ रहा है सदियों से । कहते है विवाह दो परिवारों का मिलन है ,दो संस्कारों का संगम है । कदापि नहीं जिस रिश्ते की बुनियाद ही सौदेबाजी से शुरू हुई वो कभी संस्कारों का संगम हो ही नहीं सकता । जिसके घर में बेटियाँ है वो पिता लाचार है ये कैसा संस्कार है

गलती से ही सही ....

बेटी पैदा हुई क्या उस बाँप की गलती थी ? वक़्त के साथ वो बड़ी हो गई ये किस बात की गलती थी ? वो अपना आँगन छोड़ कहीं और चली बस एक रात की गलती थी ! सबकुछ सहती रही मगर चुप रही सब हालात की गलती थी ! बेटी का हक बहु को ना मिला कभी ,सकल समाज की गलती थी ! दो नजर वार के दो शब्द प्यार के ,चल दिये जब कदम संग इजहार के क्या ये महज इकरार की गलती थी !! रोकती रही वो खुद को बामुश्किल हर रोज ,अफसोस ! शायद रिवाज की गलती थी गलती से ही सही कभी गलतफहमी में ही जीने दो इन्हें भी अपने ढंग में अपने रंग में जो बेटियाँ है , माँ है , दुनिया है , जहाँ है ; इन्होंने तो मुस्कुरा के हर गम छुपा के सबकुछ सहा है मगर किसी से  कभी कुछ ना कहा है ! चाहत बस इतनी सी की आपकी हसीं में भी और नमी में भी आपके लबों की मुस्कान बनूँ , साये की तरह साथ रहूँ आपसे हर बात कहूँ आपकी सरजमीं का मैं आसमान बनूँ एहसास बनूँ स्वाश बनूँ आपका मान बनूँ सम्मान बनूँ ! और जब-जब आप जिन्दगी बने मैं आपकी जान बनूँ ..... और जब-जब आप जिन्दगी बने मैं आपकी जान बनूँ ..... और जब-जब आप जिन्दगी बने मैं आपकी जान बनूँ ..... और जब-जब आप जिन्दगी बने मैं आपकी जान बनूँ .....