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Showing posts from January, 2021

पसंदीदा महक

गुजरे जो कभी आप मेरे अंजुमन से पूछो ना आलम बेचैन तन्हा मन के ख्वाबों में खुशबू ख्यालों के आरजू होने लगी है फिर दिल में गुफ्तगू यूँ आ के ना जाना मुझे करके दिवाना कल तक तुम अजनबी और मैं अनजाना लगता है पर सब अब जाना-पहचाना रिश्ता हो जैसे ये सदियों पुराना रूबरू जो हो बाहों के तो कहीं जाए ना बहक साँसों के दरमियाँ है मेरी - "पसंदीदा महक" !! ✍️ shabdon_ke_ashish ✍️

हमारा गणतंत्र

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Teri_Maujudgi

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रोज सवेरे उस पहली किरण में जब मैं खोलूँ पलकें ढ़लती शाम के साथ जब हम खुद को तन्हा समझें चिलचिलाती धूप में जब बदन लगे जलने कंपकपाती ठंड में जब लगे रक्त भी जमने  भीगी-भीगी बारिशों में जब लगे कभी दिल मचलने भीनी-भीनी खुशबू लिए बाहों में सिमट कर साथ महकने दिन के उजाले में पग-पग पर कदम साथ रखने रातों को दरबदर तरबतर हर पहर रूबरू बहकने हर पल है बेखुदी सी !! इक तेरी मौजूदगी ही !!!!! ✍️ shabdon_ke_ashish ✍️

बनावटी दुनिया के मायावी लोग

व्यक्ति , परिवार ,  समाज , गाँव , मोहल्ला ,  कस्बा , शहर , नगर , राज्य , देश और अंत में दुनिया सब के सब बनावटी है । उतने ही कृत्रिम जितने कि कोई मिल गया का एलियन दोस्त जादू। सबको सब चाहिए पर पता नहीं कितना और कब चाहिए। त्यौहार से व्यवहार तक सब सजावटी बनावटी कागज के फूल की तरह है जो मौसम और मन के हिसाब से ही भाते है।  उदासी भी अब दिखावटी है खुशी भी बनावटी है।आँसू भी नकली है और मुस्कान की चमकान तो छलिया।  इतने सारे रूप लिए एक-एक चरित्र इस वसुंधरा पर विचरण कर रहा कि द्वापर और त्रेता युग के समस्त मायावी राक्षसों का कद भी इनके आगे ठिगना सा लगता है। वो तो कम से कम अपने स्वामी के प्रति वफादार और अपने जन्म के साथ न्याय करते थे। पर इन आदमखोर भेड़ियों का स्वरूप ना तो तर्कसंगत है और ना ही न्यायसंगत। कहने को तो सब मोह-माया है , फिर काहे का अपना पराया है। किस बात का परिवारवाद , जातिवाद , क्षेत्रवाद , सम्प्रदायवाद , भाई-भतीजावाद और इन सबके जड़ में ना जाने कितने विवाद जैसे तथाकथित लव-जिहाद। ये सब आपके पद , प्रतिष्ठा , पहुँच और सामर्थ्य के सामने नतमस्तक। प्रेम तो सब करते है पर प्रेम-विवाह अपराध है मगर अ
हर रोज निकलता है  मेरे सिरहाने से  मिलने को  तेरे ख्वाबों के  सिलसिले से  देखना एक दिन बन ही जाएगी यहाँ अधूरी जिन्दगी कि पूरी दास्ताँ  मेरे ख्यालों का कारवां !

जायकेदार लफ्ज तेरे

जायकेदार लफ्ज तेरे ..... परोसते है चंद शेर मेरे  लजीज है  हर दिल अजीज है  महफिल वालों को क्या खबर किसने लिखा सब बेखबर  फिक्र किसे है कि दबे है लिखावटों के हुनर फक्र है तो बस लबों की बनावटों पर ! ✍️ shabdon_ke_ashish ✍️

Ishq_Mera_Kagazi

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आस्तिकता की मंडी में नास्तिकता की बाट

निबंध आस्तिकता की मंडी में नास्तिकता की बाट हम जन्म तो किसी परिवार में लेते है कुछ अपनों के बीच कई सपनों के साथ जो धीरे-धीरे नींद कम होने के साथ टूटने लगते है । जन्म लेने के साथ ही रीति-रिवाजों की बरसात होने लगती है । हम अनगिनत धार्मिक आडम्बरों से रफ्ता-रफ्ता घिरने लगते है । हर रोज बढ़ती उम्र के साथ कोई नई तिथि , कोई काल दोष , कोई ग्रह का खतरा , किसी अनहोनी का डर , कोई अंधविश्वास , किसी देवता के प्रकोप की आशंका और ना जाने कितने पाखंडियों के द्वारा समय दर समय छले जाने का भय । एक निम्नमध्यम वर्गीय परिवार की सरंचना के आधारभूत ढाँचें में ही संलिप्त होता है - "धर्म" प्रतीकात्मक रूप से मात्र परंतु वास्तविकता के धरातल पर भगवान का डर । लोग आस्था से ज्यादा अपनी इच्छाओं के लोलुप नियम बनाते है और फिर उम्मीद करते है भगवान उनकी मनसा के अनुरूप उन्हें वर दे । आशीर्वाद से लेकर प्रसाद तक सबकुछ स्वनिर्मित और अपेक्षित होता है । पग-पग पर उत्पन्न जीवन की जटिलता को सरल करने का मार्ग और माध्यम दोनों धर्म में नजर आने लगते है । पूजा-पाठ से ना मन जुड़ता है ना तन जुड़ता है जुड़ता है तो बस भ्रम । और एक-एक क

बेरोजगार से बलात्कार बार-बार

लघु-लेख बेरोजगार से बलात्कार बार-बार दोस्तों बेरोजगारी एक ऐसी जवानी है जिसे सरेआम निर्वस्त्र कर उसकी नुमाईश का तमाशा बनाया जाता है । कभी परीक्षा में विलंब ( #NTPC ), तो कभी प्रश्नपत्र लीक (#bssccgl2014) , कभी परीक्षा रद्द तो कभी परिणाम रद्द और कभी कभी तो अपरिहार्य कारण से विज्ञापन ही रद्द ( #jssccgl2015) । बेचारा नौजवान हर वर्ष अपनी बढ़ती उम्र में एक और वर्ष समाकलित करता हुआ , पुनः किसी अन्य अवसर की प्रतिक्षा में नजरों के क्षणिक दृष्टिदोषों को उम्मीद के शीशे से उपचारित कर निरंतर प्रयत्नशील रहता है । पर हर बार प्रारंभिक फिर मुख्य और अंत मे साक्षात्कार के माध्यम से उसकी इकट्ठा की गई योग्यता का आकलन कुछ चुने हुए लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से करते है । अपनी वर्षों की आबरू को सजा कर निखार कर अतीत की त्रुटियों को सुधार कर वर्तमान के दर्पण में अपनी इच्छाओं का तर्पण कर एक अभ्यार्थी अपनी दावेदारी को उनके इंसाफ की तराजू के अदृश्य पटल पर रखता है । पर जरूरी नहीं कि माप-तोल के इस अल्पाधिकार बाजार में उसके परिश्रम के खरीदार मिल ही जाए । शासन का धौंस दिखा कर सत्ता के मद में चूर चंद सत्ताधारी निशाचर बारी