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कहानी एक गुमनाम रियासत की ✍️

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कहने को तो हमें आजादी मिल चुकी थी पर स्वतंत्र बस गिने-चुने लोग ही हो पाए । और बंदिशों में बंधी नारी अब भी राह देख रही थी ख्वाबों के खुले आसमान में उड़ान भरने को । ऐसा नहीं था कि सिर्फ निम्नमध्यवर्गीय या मध्यमवर्गीय स्त्रियों का स्तर एक दासी के समान था , उच्च वर्ग के हालात भी कुछ ज्यादा अच्छे नहीं थे फर्क बस इतना सा था कि वो दासी महलों की थी । निम्नवर्गीय महिलाओं की तो बात भी कौन करता भला वो तो मजदूर थी जिन्हें मेहनताना में बामुश्किल ही दो वक़्त का खाना नशीब होता हो ।             रफ्ता-रफ्ता देशी रियासतें वक़्त के पहिये से घिस-घिस कर इतिहास के पन्नों में कहीं किसी अवशेष तले दबती चली गई । कायम रही तो बस किसी की सादगी ,जी हाँ यही तो है एक देशी रियासत की कभी ना खत्म होने वाली जागीर ,सच कहूँ तो  भारत की असली विरासत । बाल विवाह का प्रचलन तो पहले की अपेक्षा बहुत कम हो गया था परंतु किशोरियों का विवाह बगैर किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से होता रहा । अब 14 से 17 साल की बालिकाओं के मन की सुनता भी कौन भला । अक्सर रिश्ते लगाने वाले ऊँचा खानदान और बेशुमार दौलत देखकर उम्र का अंतर भूल जाते थे फिर चाहे पति की आय

वो एक दिन का सकरात ✍️

ना पतंग है ना डोर है ना लाई-तिलवे का शोर है ये साँझ है या भोर है वो उत्साह अब किस ओर है क्या ठंड ही बेजोड़ है या फिर मन में ना अब जोर है  हर तरफ पसरी शांति है ये कैसी मकरसंक्रांति है  हृदय में बसी एक भ्रांति है  कहाँ वो बचपना कांति है चूड़ा पड़ा है झोले में सब बैठे कंबल खोले में पैकेट से बाहर झांक रहा है तिलकुट नहा धो के आ जाओ घर के घाट चित्रकुट दही जमी है हांडी में  खाने की ना गारंटी है  सब्जी काट रही है माँ पर नहाओगे कब ना डांट रही है माँ बच्चे थे तो सुबह सुबह बिना पूछे कर दिया जाता था पानी के हवाले मजाल है जो बिना डुबकी लगाये कुछ भी खा ले खिचड़ी की खुशबू जब आती थी रसोड़े से चूहे दौड़ने लगते थे सूरज के सातवें घोड़े से पापड़ घी कुरकरी चटनी चोखा अचार देख कर एक साथ कैसा हो विचार यूँ तो है ये बस एक दिन का त्यौहार पर इसके नाम में ही रात है  दिन जैसा दिख रहा सब कह रहे सकरात है  अगर ये पढ़ कर आपके मुँह में पानी है  तो समझ जाओ की जिंदगी में अभी बाकी कहीं ना कहीं वो हसीं बचपन की कहानी है  @shabdon_ke_ashish ✍️ 

जुगलबंदी 💖

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इस दुनिया में सभी दौड़ना चाहते है सबसे आगे भागना चाहते है, सच कहूँ तो बिना पंखों के उड़ना चाहते है। मगर ! साथ-साथ चलने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है। कभी आगे चले तो पथ प्रदर्शन करे। साथ चले तो हमदर्द और हमसफ़र बने । पीछे चले तो छतरी बने कवच बने । पंछियों का जोड़ा कितना प्यारा लगता है ना। मगर पिंजरे में नहीं उन्मुक्त गगन में उड़ते हुए. पेड़ो की डाल पर चहचहाते हुए, छत की मुंडेर पर गीत खुशी के गाते हुए । मगर कब तक बस तब तक जमाने की नजर ना लगे जब तक । एक पंछी का जोड़ा बड़ा प्यारा है। उनकी जुगलबंदी अविस्मरणीय है। आपसी समझबूझ तो अद्वितीय । मगर उस नन्ही चिड़ियाँ जो अब थोड़ी बड़ी दिखती है कि एक अलग कहानी थी। वो रहना तो अपने प्रियतम के साथ चाहती है तन-मन से मगर उसका सौदा पहले से ही कोई और कर बैठा है मजबूरियों के हाथ। फिर भी उसने अपने मन को रोका नहीं ,ऐसा नहीं कि उसे समाज के लाज-लिहाज का डर नहीं पर ये चारदीवारी उसका सही घर नहीं। वो तो आसमान को भी भेद दे ऐसा उसमें बल है तेज है । उसने पहले तो अपने हाल और हालात को अपने जोड़ीदार से छुपा कर रखा । घुट-घुट कर सभी जज्बात को दबा कर रखा। फिर भी बच के ब

उम्मीद की धूप 🌝

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साल का आख़िरी दिन है आधे पहर निकल जाने के बाद मैंने अपने कमरे की पूरब वाली खिड़की से पर्दा और शीशा दोनों अपनी बांई तरफ खिसकाया और देखा कि रात से दिन तक चट्टान सी जमी सर्दी हल्के पीले धूप का रंग लिए मुस्कुरा रही है । चारों तरफ एक खामोशी सी पसरी है मगर दबा दबा सा ही सही कुछ ही घण्टे में कैलेंडर के बदल जाने का शोर वातावरण में भटक रहा है । उजड़ते-बसते , हारते-जीतते , रूठते-मानते , गिरते-संभलते चाहे जैसे भी एक वर्ष और पूरा करने के कगार पर खड़ी है जिन्दगी । मानों कह रही हो अभी और भी बहुत कुछ देखना बाकी है । वैसे इस जाते हुए वर्ष में हमने कुछ ऐसा कारनामा तो किया नहीं जिसकी वजह से खुद को शाबासी दे और यूँ ही बेवजह पीठ थपथपाने की हमें आदत भी नहीं । फिर भी बढ़ती उम्र के खाते में एक साल और तो जमा हो ही गए । उम्मीद तो बहुत थी जो बीतते दिनों के साथ धूमिल होती गई । मगर सब खत्म होकर भी कुछ तो बाकी है और यही तो है जिन्दगी ।  ज़माने की अंधाधुंध धुंध के बीच उम्मीद की धूप सच कहूँ तो जीवन का प्रतिरूप । @shabdon_ke_ashish ✍️

क्या मुरझाये हुए फूलों को भी खिलखिलाने का हक है ?

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सवाल बहुत ही संगीन है कि क्या वाकई में इस रंगीन दुनिया में रंगहीन को भी मुस्कुराने दिया जायेगा । सादे से लोग सादगी को समझ भी जाये तो क्या उन्हें ये सहर्ष सादगी से निभाने दिया जायेगा ? इंसानियत की परख और आदमियत की पहचान अक्सर तभी होती है जब हम टूटकर बिखर रहे होते है और फुटकर रोने के लिए एक विश्वासी कांधे की तलाश होती है ,जिस ओर ये सर स्वयं ही झुक जाये और गले से गले का आभासी स्पर्श भी हलक में अटकी अरसों के करुण विलाप को नयनों की निर्मल गंगा के साथ अनवरत बाहर आने दे तब तक जब तक की हृदय के अंदर दबा सारा का सारा गाद बाहर ना आ जाये । आख़िर वर्षों से बह रही जिन्दगी की नदी को डेल्टा बनाने के लिए एक साथी जो चाहिए ; ये वही है जिसने बड़ी खामोशी से पहाड़ों से उतरती तीव्र और तीक्ष्ण धारा के मंद हो जाने की राह तकी है । एक वही है जो सब जानता है ,आगाज़ से लेकर मुहाने तक का सफर उसने मेरे शब्दों के साथ-साथ मेरी आँखों में भी देखा है । मुझे संघर्ष करते हुए , वक़्त और हालात से टकराते हुए , गिरते हुए , संभलते हुए , पथ बदलते हुए , नाचते हुए , झूमते हुए , खुशी के गीत गाते हुए , दूर से पास बेहद पास आते हुए , मुझे त

बिहार से हूँ या भारतीय हूँ !

सर्दी की गुनगुनी धूप में हाथों में झारखंड लिए बैठा हूँ मगर दिलोदिमाग में बिहार है ,यकीन करिए बिहार से हूँ ! यूँ तो राष्ट्रीयता भारतीय है मगर राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में हम सब प्रतिभागियों का समाज कई वर्गों में खंडित है , फिर भी हम सब है तो एक वो विविधता में एकता वाली बात तो आपसब ने सुनी ही होगी ठीक वैसे ही और क्या ! पढ़ने की आदत से लाचार हम या फिर अपने ही प्रदेश में आरक्षण के नए फ़रमान से आहत अपने पड़ोसियों के घर सम्भावनाएं तलाशने को विवश है या यूँ समझिये समाज में अपनी प्रतिष्ठा और पहचान बचाये रखने का एक प्रयास है । वैसे तो इस देश में आरक्षण का विरोध करना अंग्रेजी राज के किसी गवर्नर को गोली मारने से कम नहीं फिर भी इसके आधारों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हमारे अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार क्षेत्र में तो आता ही है । पर सत्तारूढ़ शिरोमणियों को अपनी-अपनी राजनीतिक साख बचाने के लिए आरक्षण की पुड़िया रामबाण के समान प्रतीत होती है ,जिसे श्मशान में पड़े मुर्दे की जीभ पर डाल दे तो तिलमिला कर हे राम का उदघोष करते हुए दौड़ पड़े । बिहार एक ऐसा प्रदेश है जहाँ हम निम्नमध्यवर्गीय परिवारों के लिए सरकारी नौकरी कल

वैरागी हूँ पर मंजिल वैराग नहीं !

सच ही तो है समय और परिस्थितयाँ मनुष्य से सबकुछ मनवा लेती है भले आप मन से इसे स्वीकार ना करें पर समझौता ही सही यही है जिन्दगी । तभी तो हम वहाँ पहुँच जाते है जो हमारे दिलोदिमाग के दरमियाँ कभी था ही नहीं और फिर शुरू होती है आदमी की आदमियत से जंग दरअसल आत्मा की आत्मसम्मान से लड़ाई । एक तरफ हमारी चाहत ,हमारी ख्वाहिशें होती है और एक तरफ सकल समाज यानी ये दुनिया और इसी विरोधाभास की सड़क के बीचोबीच मुसाफ़िर की तरह सफर करते है हम । यकीन मानिए बड़े खुशनशिब है वो चंद लोग जो अपनी चाहत की तरफ बढ़ रहे है थोड़ा और थोड़ा और थोड़ा और , वरना जो दुनिया की तरफ से है वो तो भीड़ में भी आजीवन अकेला ही रह जाता है .... और जिंदा रहती है तो बस एक कसक कि पहले क्यों ना मिले हम ? @shabdon_ke_ashish ✍️