आस्तिकता की मंडी में नास्तिकता की बाट

निबंध

आस्तिकता की मंडी में नास्तिकता की बाट

हम जन्म तो किसी परिवार में लेते है कुछ अपनों के बीच कई सपनों के साथ जो धीरे-धीरे नींद कम होने के साथ टूटने लगते है । जन्म लेने के साथ ही रीति-रिवाजों की बरसात होने लगती है । हम अनगिनत धार्मिक आडम्बरों से रफ्ता-रफ्ता घिरने लगते है । हर रोज बढ़ती उम्र के साथ कोई नई तिथि , कोई काल दोष , कोई ग्रह का खतरा , किसी अनहोनी का डर , कोई अंधविश्वास , किसी देवता के प्रकोप की आशंका और ना जाने कितने पाखंडियों के द्वारा समय दर समय छले जाने का भय ।

एक निम्नमध्यम वर्गीय परिवार की सरंचना के आधारभूत ढाँचें में ही संलिप्त होता है - "धर्म" प्रतीकात्मक रूप से मात्र परंतु वास्तविकता के धरातल पर भगवान का डर ।
लोग आस्था से ज्यादा अपनी इच्छाओं के लोलुप नियम बनाते है और फिर उम्मीद करते है भगवान उनकी मनसा के अनुरूप उन्हें वर दे । आशीर्वाद से लेकर प्रसाद तक सबकुछ स्वनिर्मित और अपेक्षित होता है । पग-पग पर उत्पन्न जीवन की जटिलता को सरल करने का मार्ग और माध्यम दोनों धर्म में नजर आने लगते है । पूजा-पाठ से ना मन जुड़ता है ना तन जुड़ता है जुड़ता है तो बस भ्रम । और एक-एक कर टूटता भी है तो बस भ्रम ।

अब जरा आप ही सोचिए अगर या अल्लाह बोलने से हिंदुत्व खतरे में हो और जय श्रीराम बोलने से इस्लाम तो फिर काहे की आस्था और किस काम का धर्म ।

हमारा देश आस्तिकता का एक बहूत बड़ा बाजार है सच कहूँ तो आस्तिकता की सजी सजाई मंडी और यहाँ किसी को अगर धर्म की तराजू पर तोलना है तो दूसरे पलड़े में नास्तिकता की बाट चढ़ाई जाती है । उस बाट पर उकेरे अभिलेख शायद अशोक के शिलालेखों से भी अधिक जटिल होते है जिसे जेम्स प्रिंसेप नहीं सिर्फ कुछ चुने हुए धर्म के ठेकेदार पढ़ सकते है । SI यूनिट भी जिसकी माप में विफल हो जाए वो भी यहां भाप ली जाती है । और इतनी सटीक भविष्यवाणी का दावा की ब्रम्हाजी भी इस विषय में कई बार श्री चित्रगुप्त जी महाराज से चर्चा कर चुके है कि लिखते तो आप है ये धरती पर मानव सभ्यता की गारंटी लेने वाले कहीं आपके सेक्रेट एजेंट विनोद तो नहीं ।

आप ही सोचिए ना सड़क के किनारे बैठा तोता अगर आपके भविष्य का ज्ञाता है तो वो खुद क्यों किसी का गुलाम है ? हमारे देश में राजतंत्र से लेकर गणतंत्र तक सभी इससे परे नहीं है । राशियों के प्रकोप से कोई बच नहीं पाया है । सबको अपने वर्तमान से ज्यादा भविष्य की चिंता है । 

आलम कुछ यूँ है कि एक माता की दृष्टि में उसकी संतान सिर्फ इस वजह से नास्तिक हो जाती है कि वो उसके साथ देवालय अर्थात मंदिर जाने को तैयार नहीं । पर उन्हीं ने तो बचपन में सिखाया होता है कि कण-कण में भगवान है फिर मंदिर जाकर घण्टा क्यों बजाना ? घर में हर रोज कोई पूजा कोई उपवास और ढेर सारे नियम अनगिनत रीति-रिवाज । और फिर आता है दोष निवारण अर्थात उपाय जैसे काली गाय को रोटी , कुत्ते को गुड़ और पंक्षियों को चने । और अगर इन सबसे भी बात ना बने तो अखंड जाप । आपके यहाँ तो चल रहा होता है पर उसे लाउडस्पीकर लगा कर किसी माध्यमिक , उच्चतर माध्यमिक अथवा कमिशन की तैयारी में जुटे अभ्यर्थी को बारंबार क्यों सुनाना ।

अभिभावकों की नजर में उनकी संतान सर्वगुण सम्पन्न तभी मानी जाएगी जब वो उनके साथ अमावस की फेरी और माता के जगराते में जाए । भले उसको इन सब में दिलचस्पी हो या ना हो । फिर भी जबरदस्ती की आस्था का सॉफ्टवेयर उसके सिस्टम में इंस्टॉल किया जाता है । और वायरस के खतरे से बचाने के लिए किसी विशेषज्ञ महात्मा से हाथों में धागे और माथे पर टीका का एंटीवायरस भी चिपका दिया जाता है । 

धर्म में ही सिखाया जाता है ईश्वर से प्रेम करो पर वास्तविकता कुछ और है - भगवान से डरो ! भगवान से डरो ! भगवान से डरो !

लेखक 

आशीष कुमार 

✍️ shabdon_ke_ashish ✍️

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