बुखार ही तो है
बुखार वीर रस :- तू तनिक भी विचलित मत हो अपने पथ से जिसे तू समझ रहा बुखार है दरअसल वो तुझे कोयले से तपा कर हीरा बना रहा तेरे भीतर का आंतरिक ज्वार है । भक्ति रस - आत्मा की गर्मी से तप रहा बदन ,परमात्मा के शरण में शौंप दो ये मन ,जल रहा पल-पल ये तेरा अंहकार है जिसे तू समझ रहा बुखार है । सृंगार रस - तेरी रूप की गर्मी मेरे अंग-अंग में कुछ ऐसे समा गई ; जल रहे दिल ,जिगर ,गुर्दे ,फेफड़े सब और बुखार आ गई । विरह रस :- तपती रहेगी ये जिस्म और जलती रहेगी जान ,जब तक सीने से ना मिटेंगे तेरे जाने के निशान । हास्य रस :- बदला मौसम और चढ़ गया शरीर का भी पारा ,जमाने को लगा कि इसे भी बुखार ने बिगाड़ा ।