बनावटी दुनिया के मायावी लोग

व्यक्ति , परिवार ,  समाज , गाँव , मोहल्ला ,  कस्बा , शहर , नगर , राज्य , देश और अंत में दुनिया सब के सब बनावटी है । उतने ही कृत्रिम जितने कि कोई मिल गया का एलियन दोस्त जादू।
सबको सब चाहिए पर पता नहीं कितना और कब चाहिए। त्यौहार से व्यवहार तक सब सजावटी बनावटी कागज के फूल की तरह है जो मौसम और मन के हिसाब से ही भाते है। 

उदासी भी अब दिखावटी है खुशी भी बनावटी है।आँसू भी नकली है और मुस्कान की चमकान तो छलिया। 

इतने सारे रूप लिए एक-एक चरित्र इस वसुंधरा पर विचरण कर रहा कि द्वापर और त्रेता युग के समस्त मायावी राक्षसों का कद भी इनके आगे ठिगना सा लगता है। वो तो कम से कम अपने स्वामी के प्रति वफादार और अपने जन्म के साथ न्याय करते थे। पर इन आदमखोर भेड़ियों का स्वरूप ना तो तर्कसंगत है और ना ही न्यायसंगत।

कहने को तो सब मोह-माया है , फिर काहे का अपना पराया है। किस बात का परिवारवाद , जातिवाद , क्षेत्रवाद , सम्प्रदायवाद , भाई-भतीजावाद और इन सबके जड़ में ना जाने कितने विवाद जैसे तथाकथित लव-जिहाद।

ये सब आपके पद , प्रतिष्ठा , पहुँच और सामर्थ्य के सामने नतमस्तक। प्रेम तो सब करते है पर प्रेम-विवाह अपराध है मगर अगर आप सामर्थ्यवान है तो सही है ये तो बस गरीबों के लिए लव-जिहाद है। हिंदुत्व , ब्राह्मण , क्षत्रिय , शुद्र , वैश्य ये सब तो बहूत बाद कि बात है। उत्तरवैदिक काल से पूर्व तो ये सब कल्पना से भी परे था। और इस्लाम तो खैर फिर भी बहूत बाद का विषय है।

राजनीति ने हर जगह ऐसा घुसपैठ किया कि लौकिक परलौकिक सब जगह बस राजनीतिक स्वार्थ सराबोर है। और शोषित वही है जो कमजोर है। हम सबकी सुन लेते है पर सुनाते केवल उसे है जिससे हम अधिक सामर्थ्यशाली होते है। महाजनपदों के देश में आज गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले में द्वेष है। एक पाकिस्तान तो व्यर्थ ही अपनी गलतियों से बदनाम है उसके जैसे ना जाने कितने पाकिस्तान है। वो पाकिस्तान ना तो हिन्दू है ना मुसलमान है बल्कि हमारे भीतर ही हृदय में आसीन हमारा मन शैतान है।

दोस्ती भी अब विश्वास खो रही। ना जाने कितने मित्रघात अपने ही मगध साम्राज्य के पतन को लालायित है। आपका सारथी ही कब स्वार्थी हो जाए ये तो रथ के पहियों को भी नहीं पता। दो घोड़े भी तो दो अलग विचारधारा लिए बेमन निरुद्देश्य दौड़े जा रहे है। 

समाज सिर्फ सफल लोगों का अति-महत्वकांक्षी समूह है। असफलता के चिरागों को तो फूंक मारने वाले भी नहीं। जिस समाज की दुहाई हमें जन्म से दिन-रात , सुबह-शाम दी जाती है वो हमारा है ही नहीं हम जबरदस्ती के उसमें उलझे है। और जब सुलझने की सुध होती है तब तक बहूत देर हो जाती है।

प्रतियोगिता ने हर ओर ऐसा कोहराम मचा रखा है कि भाई-भाई और माँ-बेटी जैसा कुछ रह नहीं गया। लोग सरकार और सरकारी नौकरी को व्यर्थ ही कोसते है प्रतियोगिता तो जन-जन और मन-मन में है।

बेरोजगारों की एक जमात है , जिनके एक से हालात है मगर फिर भी अलग-अलग खयालात है।
ये अभिशाप अवसरवादियों के लिए वरदान है। पदों की संख्या कम करों और इन्हें तरसा कर तड़पा कर मजबूरात फॉर्म भरवा कर अपने राजस्व के झोले को भारी करते रहो। हम एक है बिल्कुल भी नहीं 135 करोड़ है और ये सत्ताधारी शेरों को पता है। वो जानते है कि धीरे-धीरे भी खाते रहे तो कई पीढ़ियों तक खत्म नहीं होंगें। और यही उन्हें आश्वस्त करता है कि हमारा देश गरीब लोगों का धनी है।

और अंत में अगर किसी ने आवाज उठाने की कोशिश भी की तो आप जानते ही है :-

India is a Rich country of Poor Critics ..........

लेखक 
आशीष कुमार

✍️ shabdon_ke_ashish ✍️


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