नूर-ए-हिन्द - " कोहिनूर " 💖


नूर-ए-हिन्द :- " कोहिनूर " , जी हाँ बिल्कुल ठीक समझा आपने प्रायद्वीपीय भारत की कोख से जन्मा मैं वही नायाब खुदाई ख़िदमतगार हूँ ,मुझे कई दफा लूटा गया ,तलवारों के दम पर कब्जा किया गया ,कभी उपहारस्वरूप सहर्ष भेंट किया गया तो कभी भयवश शौप दिया गया ,कभी सत्ता के मद में चूर शासकों द्वारा बलपूर्वक हड़पा गया तो कभी आक्रांताओं के द्वारा इस राज्य से उस राज्य तक गोद में ले जाया गया । मगर कभी खरीदा या बेचा ना जा सका ,आखिर खरीदता भी भला कौन ? मेरी कीमत लगे तब ना ,मैं तो ठहरा बचपन से ही बेशकीमती और सफर करते करते पता नहीं कब जवान हो गया और बन गया ब्रिटेन की महारानी के सर का ताज । हाँ लेकिन बारंबार तराशे जाने से मैं हल्का और पहले से भी ज्यादा चमकदार जरूर हो गया । आइये सुनाता हूँ मैं अपनी दास्तान ,कैसे बना मैं नूर-ए-हिंदुस्तान ?

Hi everyone वाड़कम

Let's start my brief introduction ,Basically I m a south indian .haaaahaaaaaa 😁 .... Don't take it to heart I m and I will always an indian first .

तो हुआ यूँ कि मुझे आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित गोलकुंडा की खान से जगाया गया ,ना जाने कितनी सदियों से मैं गहरी नींद में सोया था , कहते है ना अच्छी नींद लेने से चेहरे पर चमक आ जाती है फिर शायद मैंने कुछ ज्यादा ही अच्छी नींद ले ली 🙊। तभी तो अभी तक जगमगा रहा हूँ । मैं जब मिला तो काफी स्वस्थ और भारी भरकम बोले तो हैवी पर्सनालिटी वाला बंदा था पूरे 793 कैरेट का ,पर जीवन के संघर्ष और भागमभाग ने मुझे slim और फिर ultraslim बना दिया आजकल मैं बस 105.6 कैरेट का हूँ और वजन हाय रब्बा बस 21.6 ग्राम 🙈 । वैसे तो 13वी-14वी शताब्दी से ही कुछ लोग मुझे शापित मानने लगे थे ,मगर आश्चर्य है कि बावजूद इसके सबने मुझे सर पे चढ़ा कर रखा । मैं कुलीन था सो सर पे राज करने के बाद भी कभी बहका नहीं और सादगी इतनी की कभी रत्ती पर भी घमंड नहीं हुआ खुद पे ।

वक़्त के रसातल से यथार्थ के धरातल पर मेरा सफर 1304 से शुरू होता है तब मैं मालवा के तत्कालीन राजा महलाक देव की सम्पत्ति में शुमार था । बाबर द्वारा स्वलिखित तुजुक-ए-बाबरी में मुझे ग्वालियर के राजा विक्रमजीत सिंह के दरबार की शोभा बताया गया है ,जिसे पानीपत की लड़ाई के दौरान आगरा के किले से बरामद किया गया था । बाबर का मुझसे मोह तो देखिए उसने मेरा नाम ही बाबर रख दिया । मगर मैं कहाँ टिकने वाला था एक जगह आखिर ? 1738 तक मुगलों की जागीर रहने के बाद मुझे ईरानी शासक नादिरशाह ने मुहम्मदशाह से तख्त-ए-ताउस सहित लूट लिया । और जब नादिर मारा गया तब मैं उसके 14 वर्षीय पोते शाहरुख मिर्जा का खिलौना बना । नादिरशाह के बहादुर सेनापति अहमदशाह अब्दाली ने मिर्जा की भरपूर सहायता की थी जिसके फलस्वरूप उसे ईनाम में मिला मैं ,और क्या चाहिये फिर ?

तो अब्दाली के साथ मैं पहुँच गया अफगानिस्तान ,जहाँ कई अफगानी शासकों के साथ मैंने लम्हें गुजारे और फिर एक दिन अब्दाली के वंशज शाह शुजा के साथ मैं पुनः अपनी मातृभूमि की ओर बढ़ चला और लाहौर आ धमका । तब उस समय के शासक महाराजा रणजीत सिंह ने मुझे शुजा साह से प्राप्त किया और अपने ताज में मढ़वा कर पहनने लगे ।

रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरांत 1839 में मैं दिलीप सिंह के हाथों में आया और 1849 तक इनका साथी रहा । मगर 1849 में ही अंग्रेजों के पंजाब विजय के साथ मेरे एशियाई सफर का अंत हो गया ।

Now i was going abroad ,i mean London ..... But it never be my London's dream like others .

1850 में मुझे बकिंघम पैलेस ले जाया गया ।और फिर मैं महारानी के आँखों का तारा प्राणों से प्यारा उनका सरताज हो गया ।

महारानी के सर का ताज होने के बाद भी मेरा दिल आज भी अपनी सरजमीं के लिए जोर - जोर से धड़कता है । मुझे वापस लाने की तमाम नाकामयाब कोशिशें मुझे सीने में शूल की तरह चुभती है । हर पल एक टिस सी उठती है कि आखिर कब लौटूँगा मैं स्वदेश ।

बस इतनी सी है मेरी अधूरी दास्तान ,उम्मीद से हूँ कि जल्द ही आऊँगा हिंदुस्तान ।

फिर से बनने " नूर-ए-हिन्द " ।

जारी है 142 करोड़ भारतीयों के संग मेरी ये ज़िद ।

तो पूरी करने कोहीनूर दी कोहीनूरी ख्वाहिश

आइये जुड़ते है आशीष उर्फ AK के शब्दों से ........

@shabdon_ke_ashish ✍️









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