दो कंकड़ और दो पत्थर
बंजर रास्ते पर तन्हा पड़े थे दो कंकड़ उम्र से नहीं जिन्दगी से थक कर रात से अकेले थे आठों पहर नहीं थी कुछ खबर ना कोई फिकर ना सब की खुशी ना उमंगों का सहर पसरे पड़े थे वीराने के भीतर ठोकर लग जाने का भी तो नहीं था डर दूर था शहर अनजान थी डगर मगर ! दोनों अजनबी जो मिले थे ना कभी सागर गटके हुए नजरों के अंदर फिर भी दरारों से सजे थे सूखे बेजान अधर बयां कर रहे थे समाज का कहर अपनों ने ही दिए थे ईनाम में जहर हुआ यूँ कि एक दफा हालात से हो कुछ खफा उनमें से एक ने शाम होते देख के लिख दिया कुछ रेत पे जज्बात थे हालात थे तभी दूसरे की भटकती नजर एक पल को गई ठहर लिखा था जो वो लिया पढ़ तब से वो बस यही हर बार ही करने लगी लिखता रहा वो बेखबर और दो नजर पढ़ने लगी वैसे तो भीड़ बहोत थी जमाने में पर बस शब्दों का ही शोर था इस वीराने में थोड़ा वक्त जरूर लगा हौसला जुटाने में पर एक सुबह वजह बनी पास आने में फासला जरूर था मिलों का पर ये सफर था बस एक राज्य के दो जिलों का शब्द ही पहचान बने जो कभी ना अनजान लगे पहले क्षण से ही जो अनन्त है इस प्रेम का ना अंत है आवाज तक ना आई कभी बस शब्द ही तो मिले अभी रफ्ता रफ...