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Showing posts from May, 2024

आख़िर पहुँच ही गई शहर की गर्मी गाँव तक भी 🥵

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अगर आपको लगता है कि विकास गाँव तक नहीं पहुंचा तो शायद आपने गाँव को तब और अब देखा ही नहीं । वो धूल से सनी कच्ची सड़क अब चमचमाती अलकतरे की काली नागिन के दोनों तरफ सफेद पट्टी के निशान में तब्दील हो गई है । वो बरसात में कीचड़ से संघर्ष करते रास्ते अब झमाझम में नहा कर अपने कायाकल्प पर इतराते नजर आते है । वो लालटेन की धीमी रौशनी में दरवाजे के पीछे से अपने पति के आने की राह देखती चुन्नू-मुन्नू की माँ के घर से शहर तक दूधिया रौशनी में नहाती जमीं अब उस आसमां के चाँद के भरोसे नहीं जो पूरनमासी को पूरा और अमावस को नदारद हुआ करता था । ना तो पहले की तरह झोपड़ी है ना फुस के छप्पर , ना मिट्टी की दीवारें ना टाली ना चौबारें । अब देहात में भी किसी के हाथ झुलाने वाले पंखें के भरोसे नहीं , सर पे नाचता है तीन टांगों वाला खेतान या तूफ़ान । कभी जिन्हें गुरूर हुआ करता था प्रकृति की ताजी हवा पर आजकल समृद्धि के एयरकंडीशन के सुरूर में मगरूर है ।                        अब शहरी साहब और उनके परिवार को जब शहर जलाता है तो कहां वो ख्वाबों का गाँव याद आता है । मकान तो दोनों जगह पक्के है मगर फिर भी गर्मी से परेशान बच्चे है । ...

खौफ़ की एक रात 🙄

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कल रात चाँद रक्त सा लाल था मानों चाँदनी ने लहू पी लिया हो और अपनी सारी लाली चमकते चाँद पर उड़ेल दी हो । आम लोगों के लिए तो ये बस एक सामान्य सी बात थी , सच कहूँ तो अधिकांश ने ध्यान ही कहाँ दिया आसमान पे । पर जिसने दिया वो चश्मदीद है अंधेरी रात में अंगारों से दहकते रक्ताभ चाँद का ।     रोजाना की तरह मैं तक़रीबन 8.45 के आस-पास अपने घर की सीढ़ियों पर टहलता हुआ छत पे खुले आसमान के नीचे राहत की साँस की चाह में सुकून के पल बिताने पहुँचा । नीचे तो मानो आग बरस रही थी अब किसे पता था कि धरती की तपिश से चाँद भी लाल हो जायेगा , भाई वाह इश्क़ हो तो ऐसा । वैसे तो मैं आदत से मजबूर अक्सर उत्तर-पूर्व के आसमान को निहारता रहता हूँ पर जैसे ही मेरी नजर दक्षिणपूर्वी कोने पे पड़ी पेड़ की छाया से थोड़ा ही ऊपर चाँद जलते तवे पे पड़े लाल गुड़ के पराठे सा धधक रहा था ,पर इस तपन में भी अखंड ठंडक थी बस नजरें इस दृश्य को देखकर उबलने लगी और मन मस्तिष्क से भी तेज कुछ तलाशने लगा ।  अभी हम इस उधेड़-बुन में ही व्यस्त थे कि अचानक रेड ब्लड मून का ख्याल आया और मेरे छत की जमीन पर टहलते तन्हा कदम एकदम से ठहर गए । क्योंकि ये तो क़यामत की र...

तू हवा है या जिन्दगी 🌳

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कभी पछुआ जोर लगाती है  तो कभी पुरवा शोर मचाती है  जिन्दगी का मतलब बहना है  ये पाठ हमें सिखलाती है  ख़ामोश हो जाना है सबको एक दिन इस मौन से ये कब घबराती है  कभी सर्दी में ठिठुराती है  तो कहीं गर्मी से जलाती है  कभी चल-चल के सताती है  तो कभी ना चले तो रुलाती है  किसी सुबह ख्बाब से जगाती है तो किसी शाम को दिल बहलाती है  कभी तन्हाई में सिसकाती है तो कभी महफ़िल में आग लगाती है  कभी बादल संग रेस मचाती है  तो कभी बारिश में नहाती है  कभी सूरज को आँख दिखाती है  तो कभी चंदा में शर्माती है  कभी अधरों पे फड़फड़ाती है  तो कभी सीने में आह दबाती है  कभी पायल बन झनझनाती है  तो किसी आँचल को लहराती है  कभी आशिक़ को मचलाती है  तो कभी शायर के शब्द सजाती है  कभी सजे हुए को बिखराती है  तो कभी किसी बिखरे को सजाती है कभी कोरे कागज पे कोई किस्सा बन जाती है  तो कभी किसी किस्से को ही कोरा कर जाती है  कभी तितली के संग रंग लाती है  तो कहीं जुगनुओं में जगमगाती है  कभी चिड़ियों संग चहचहाती है  तो किसी झरने के संग गाती है  कभी जुल्फों को सहलाती है  तो कभी गालों को छू जाती है  कोई संदेश कहीं ले जाती है  तो कभी याद किसी की ल...

वो एक दिन और उनका जन्मदिन 🦋

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वैसे तो हर एक दिन विशेष होता है और प्रत्येक पल की अपनी विशेषता होती है पर कुछ तो बेहद खास बात है ना इस 19 मई की जिसका इंतजार सादगी भी बड़ी बेसब्री से करती है ,मगर कभी इज़हार नहीं करती ये अलग बात है । वैसे भी उनकी जुबां अंतरों से सजी अन्तराक्षरी है व गीतों का सुरीला चित्रहार है जो अक़्सर अपनी भावनाओं की नदी को नगमों के झरनों में परोसती है । है ना बेहद दिलचस्प ,मुझसे बेहतर ये कौन जान सकता है भला !          ऐसा नहीं है कि उन्हें खुशियाँ तलाशनी पड़ती है दरअसल सच तो ये है कि हसीं पल उन्हें खुद ढूँढ़ लेते है । पर जन्मदिन तो साल में एक बार ही आता है ना वो भी बस 24 घण्टे के लिए फिर जो पूरे साल की सेलेब्रिटी है उसे इस स्पेशल डे पर रॉयल्टी मिलना तो लाज़िमी है । कहाँ उन्हें फुरसत है कहीं आने-जाने की वो तो एक कमरे की संसद भवन में पाँच साल के सरकारी कार्यकाल की तरह खाली है या फिर इतनी व्यस्त की बाहर की दुनिया के लिए वक़्त ही नहीं । फिर भी कभी जब विधाता की असीम अनुकंपा से भ्रमण का संयोग बनता है और वो अवसर आता है जब तमाम सियासत छोड़कर महारानी उस देशी रियासत की फिजाओं में अपने क़दम रखती है जहाँ के कण-कण मानों ...

हाय ये सफर ;उफ़्फ़ वो यादें ✍️☕✍️

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रोज सुबह आपको इत्मिनान से पीने को चैन वाली चाय मिले ये जरूरी नहीं । वक़्त एवं हालात के हिसाब से उस दिलचस्प स्वाद के साथ हसीं यादों को दिए जाने वाले समय से समझौता करना पड़ता है , नहीं तो अगर फिर से उन लम्हों के दामन में खोये तो कहीं देर ना हो जाये ।  आज तड़के सुबह मुझे पूरब वाली झरोखे से आते हवा के झोखे ने सूरज निकलने से पहले ही जगा दिया परंतु खुली आँखों के साथ जुबान को तड़का लगाने वाली उस स्वाद मेरा मतलब उस चाय की ऊर्जावान ख़ुराक के लिए समय पर्याप्त नहीं था , दिन भर का सफर जो शुरू होने वाला था । पहले पटना और फिर वहाँ से गया के लिए । फिर भी इस आनन-फानन में भी झटपट दो-चार घूँट तो लगा ही ली मैंने । यूँ तो मैं चाय का आदी नहीं हूँ पर मौसम का मिजाज और लेखक वाले अंदाज के लिए एक प्रबुद्ध अवसरवादी की तरह चुस्किया  लेता हूँ । आख़िर इस प्याली से मेरे ख़्वाब और ख़्याल जो जुड़े है पर मैं सुरमा भोपाली की तरह सिर्फ ख़्याली भी नहीं , मुझे काम भी करना होता है ,जी हाँ पढ़ने-लिखने के अलावा भी ।        तैयार होते ही माँ दो आलू पराठे और दही लेकर आई और मैंने भी इन्हें निपटाने में देर कहाँ लगाई । भागते हुए एक भले...

हवा बदलते देर नहीं लगती 🌬️

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अभी दो दिन पहले की ही तो बात है आसमान से आग बरस रही थी ,पछुआ हवा ने आतंक मचा रखा था , घर का कण-कण दहक रहा था ; मानो किसी भट्टी में पड़े हम दिन के पहर गिन रहे थे और आज सुबह चादर में लिपटे गुलाबी ख़्वाब देख रहे है । बदल गया ना सबकुछ सच ही तो कहते है कि हवा बदलते देर नहीं लगती । हवाओं का ही तो असर है कि दरवाजों की ओट में पड़े लोग आज खिड़कियाँ खोल कर मौसम का मजा ले रहे ।      आलम ये था कि सवेरा होते ही दोपहर हो जाती थी और फिर शाम तक लहर का कहर । आधी रात के बात थोड़ा सुकून जरूर मिलता था मगर आँख लगते ही पता नहीं कब फिर से सूरज चढ़ा होता था क्षितिज में ।              परसो से हवा का रूख बदला और चीखती गरजती पछुआ का स्थान सरसराती सर्द पुरवा ने ले लिया । रफ्ता-रफ्ता धरती की तपती रूह शीतल हो गई और आहिस्ता-आहिस्ता हमारी धधकती साँसें भी ।          अभी हम इस ओह-पोह में ही थे कि मई की गर्मी के बीच ये चादर में लिपटी सुबह कैसे नशीब हो गई तभी पुरवईया पूरब से पैगाम लेकर आई कि कल शाम बरसात हुई थी पूर्वी रियासत के आँगन में । ये बात भी तो सोलह आने सच है कि पश्चिम के लिए राहत हमेशा पूरब से ही आती है । कल रात जब ये ...

चाय :- लत नसीहत मशवरा या राय

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वैसे तो चाय सुबह की दस्तक है और शाम का पैगाम है मगर इसके अलावा भी क्या इसके और कोई नाम है , पीने वाले तो सोच रहे होंगें हमें तो जीभ की तलब बुझानी है इन सबसे भला हमारा क्या काम है ? पर एक लेखक का मन और उसकी कलम तो तलाशती रहती है हर प्याली में सुगंध और हर घूँट में स्वाद का रंग ।      तो फिर चलिए चाय पर इस चर्चा को शुरू करते है । आरंभ उस समूह के विचारों से करते है जो चाय को एक लत मानते है । सच कहूँ तो आबादी का एक बड़ा हिस्सा इसी मनोविकार का शिकार है कि मुझे तो तेरी लत लग गई लग गई ज़माना कहे लत ये गलत लग गई ; पर है तो है ,आख़िर लबों को प्याली की लाली से बेइंतहा प्यार जो है । कुछ लोग तो काम करने के लिए चाय पीते है और कुछ जब कोई काम ना हो तब चाय ही पी लेते है आख़िर ये भी तो एक काम है । कुछ लोग छुप छुपाके पीते है तो कुछ सरेआम चाय से अपनी आशिक़ी का इज़हार करते है ।         यूँ कभी आदत तो नहीं थी चाय हमारी पर लबों से रोज मिलते-मिलते लत बन गई ...         अब बात करते है कि चाय नसीहत कैसे है 🤔 , ज्यादा सोचने वाली बात नहीं इसमें देखिए अलग-अलग दूध ,पानी , चीनी ,अदरक , इलायची सबके अपने रंग है , अपनी पहचान...

उबल रही है :- चाय या फिर यादें ☕

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आज सुबह गर्मी से थोड़ी राहत थी अरसों बाद फिर एक बार चाय बनाने की चाहत हुई  लोग तो चाय बनाते है स्वाद के लिए या फिर है ये कुछ लोगों की आदत भी  मगर मैं ख्वाबों के पतीले में यादों को उबालता हूँ  जब तक चाय बनती है अतीत को खंगालता हूँ जैसे-जैसे ये पत्तियाँ मिश्रण में घुल-घुल कर रंग बदलती है  हमारी बातों की वही पुरानी कश्ती एक नई दरिया में टहलती है  गर्म होता है बर्तन की तली से ऊपर तक का मौसम और फिर ऊफान आता है  मानों मन के भीतर भी कहीं किसी निम्नदाब के केंद्र पे तूफान आता है  उस दौर से इस दौर तक सबकुछ घुम जाता है एक चक्रवात सा आखिर जीवन भी तो एक बवंडर है कुछ हसीं कुछ नमी लादे बात का  इधर मैं खोया हूँ ख्यालों में  उधर रंग चढ़ गया है उमड़ते उबालों में  प्रतीक्षा में है चाय कि हम होश में आये जागते हुए भी ख़्वाब जो देखते है  और इस सौंधी सुगंध से अलाव सेकते है  ख़्वाब को तो टूटना ही है एक दिन फिर चाहे वो हक़ीक़त बने  या फिर ख़्वाब ही रहे  पुरबा का एक झोंका रसोड़े की खिड़की को चीरता हुआ मेरे बालों को सहला गया मानों चाय बन गई है ये याद दिला गया  ध्यान भंग होने पर एक मुस्कान लाज़िमी थी  चाय तो तैयार थी मगर फि...

वहम नहीं थी वो दहशत

बात तब की है जब मैं स्नातक का छात्र था और सिविल सर्विसेज का अरमान लिए दिल्ली के कोटला जा पहुंचा । एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार के लिए परीक्षा की तैयारी भी किसी युद्ध से कम नहीं होता , क्योंकि ना जाने किस-किस से और कितना लड़ना पड़ता है , वक़्त और हालात से लड़ाई तो फिर भी एक सामान्य सी बात है । और अगर आप कैटेगरी से भी जेनरल है तो आप भी उसी जनसाधारण एक्सप्रेस का हिस्सा है जिसमें भीड़ तो कम होने से रही बस आपको अपनी जगह बनानी है ।         यूँ तो मैं दिल्ली पहुँच जरूर गया था मगर दिल्ली अभी दूर थी । वहाँ जाकर देखा की यहाँ पढ़ने वालों की एक फौज है और बिगड़ने वालो की भी मौज है । पैसा ,परिश्रम ,पसीना और प्यार पानी की तरह बह रहा है चयन आपको करना है कि आप बहना किस नदी में चाहते है ।               बस मुश्किल से एक सप्ताह लगा सबकुछ समझने में फिर मैंने अपनी साधना शुरू कर दी । साहित्य से लगाव तो सात साल की उम्र से ही था मगर सामान्य ज्ञान से सच कहूँ तो साहित्यिक प्रेम तभी शुरू हुआ । ये नया-नया प्यार दिन ब दिन उफान चढ़ता गया और इस चक्कर में हम अपना विषय ही गोल कर बैठे फिर भी अगले साल किसी भी तरह चंद महीनों के मेहन...